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नारी


इन भावनाओं के पिंजरे में,

एक कैदी बन कर अटकी हूँ|

अपनी बनाई उलझनों की,

एक अनजाने दलदल में लिपटी हूँ|


इस विवेक ह्रदय की संग्राम में,

एक कुरुक्षेत्र बनी बैठी हूँ|

हार जीत का मोह नहीं,

निष्कर्ष से सहमी बैठी हूँ|


हार जीत तो पहलू है, नज़रिये के,

सब आखों का फेर है|

किस्मत की गुलाम हूँ,

बदलने में कितनी देर है|


ह्रदय की आकांशाओं पर,

विवेक का कितना जोर है|

यथार्थ के इम्तिहान पर,

उलझनों की डोर है|


ज्ञान की कमी नहीं,

पर अपनाने का साहस नहीं|

झूठ के आवरण से,

पर्दा उठने में कितनी देर है|


भेज सच का जानकर,

क्यों अंधेरों की दासी हूँ|

कौन मुझे रोक रहा है,

किस पानी की प्यासी हूँ|


ना कोई अपना, ना कोई पराया,

गहरे भंवर में अटकी हूँ|

करवट लूं तो आज किनारा,

ना जाने किस नाग से लिपटी हूँ |


इन भावनाओं के पिंजरे में,

एक कैदी बनकर बैठी हूँ |

रिश्तो की बेड़ियां है,

एक बाँदी बनकर बैठी हूँ ||

- निकिता मुँधड़ा

 

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