मेरी रूह

चलते-चलते इस सफर में, कई मोड़ पर लड़खड़ाई।
हर बार अंदर से आवाज़ आई, तू डर मत, में हूँ तेरे साथ।।
कभी आवेश में गरजती, तो कभी आँखों से बरसती।
हिल्लोरे मार-मार के, में प्रेम के लिये तरसती।
फिर वही आवाज़ दोहराई, तू डर मत, में हू तेरे साथ।।
अकेलेपन से तड़पती, बेखबर राहों पर भटकी।
जल-जलकर राख हो गयी, यह सूनी सी मटकी।
अपनो ने कभी समझा नहीं, गैरो से शिकायत क्या करती?
अपने हृदय के ताण्डव का, उबलता प्रदर्शन क्या करती?
जब हार गयी संसार से, होने लगी थी विरक्ति।
मिलने गयी उस स्वर से, जो हर पल थी मेरी शक्ति।
तू हैं कौन? क्या ठिकाना? क्या हैं… तेरा परिचय?
क्युँ हैं तुझे मुझपर, इस संसार से अधिक निश्चय?
घबराई, लड़खड़ाई, न जाने मैने कितनी चोटे खाई।
हर बार संभाला तूने, क्या हैं तू मेरी परछाई?
वातसल्य की गोद में सुलाकर, वो मेरा सर सहलाने लगी।
प्रेम से भरे लव्ज़ो में, अपना परिचय वो देने लगी।
तू मुझसे अलग नहीं, मेरे ही कर्मो का अवशेष हैं।
में तेरी रूह हूँ, क्या और कोई प्रश्न शेष हैं।।