क्या मूल्य है परवरिश का ?

अपने घरौंदे के कोलाहल में,
एक नन्ही परी बिलखती थी |
अपने एकाकीपन में वह,
सुकून की आस रखती थी |
अपनों में वह अकेली थी,
विश्वास नहीं कर पाती थी |
समुद्र की तीव्र लहरों में,
किनारे के लिए तड़पती थी |
अपने घरौंदे के कोलाहल में,
एक नन्ही परी बिलखती थी |
इतने कर्कश चक्रव्यू में,
डर और आवेश से भरने लगी थी |
अपनों से लड़ते-लड़ते वह,
निर्मल से मलीन होने लगी थी |
मीठी किलकारियों को तजकर,
लफ्जों से तीक्ष्ण बाण चलाने लगी थी |
क्रोध घृणा की काली चादर ओढ़कर,
श्वेत अस्तित्व को ही भूलने लगी थी |
क्रिया की प्रतिक्रिया पर आज,
अपने ही दोषी कहने लगे हैं |
उस प्यारी सी परी को आज सब,
स्वार्थी करार करने लगे हैं |
सोचो अपने अंतर्मन में,
क्या दोष था उस परी का ?
जो देखा, जो पाया, जो समझा,
बनाता है चरित्र आपका |
अपने विवेक की गहराइयों में,
मंथन करें इस सत्य का |
की..
क्या मूल्य है परवरिश का ?