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क्या मूल्य है परवरिश का ?


अपने घरौंदे के कोलाहल में,

एक नन्ही परी बिलखती थी |

अपने एकाकीपन में वह,

सुकून की आस रखती थी |

अपनों में वह अकेली थी,

विश्वास नहीं कर पाती थी |

समुद्र की तीव्र लहरों में,

किनारे के लिए तड़पती थी |

अपने घरौंदे के कोलाहल में,

एक नन्ही परी बिलखती थी |

इतने कर्कश चक्रव्यू में,

डर और आवेश से भरने लगी थी |

अपनों से लड़ते-लड़ते वह,

निर्मल से मलीन होने लगी थी |

मीठी किलकारियों को तजकर,

लफ्जों से तीक्ष्ण बाण चलाने लगी थी |

क्रोध घृणा की काली चादर ओढ़कर,

श्वेत अस्तित्व को ही भूलने लगी थी |

क्रिया की प्रतिक्रिया पर आज,

अपने ही दोषी कहने लगे हैं |

उस प्यारी सी परी को आज सब,

स्वार्थी करार करने लगे हैं |

सोचो अपने अंतर्मन में,

क्या दोष था उस परी का ?

जो देखा, जो पाया, जो समझा,

बनाता है चरित्र आपका |

अपने विवेक की गहराइयों में,

मंथन करें इस सत्य का |

की..

क्या मूल्य है परवरिश का ?

- निकिता मुँधड़ा

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