आजकल : विभावरी विटकर

आज कल हम मे वो बात नही
रूह जिंदा है मगर जिस्म आबाद नही
एक उदासी एक अकेला पन जाने
हवा भी आज कल वैसे बहती नही
एक खाली कमरेसा बंद है जमाना
रोशनी और हवाने अंदर है आना
खुद को आजमाना सीख लिया हमने
पर चुनौतियों मे अब कुछ दम नहीं
वो राहें ,गलिया ,मोहल्ले और ठेले
रौनक ही रौनक जब लगते ते मेले
ये मौसम भी क्या है बिना दिल्लगी के
आदमी जिंदा है बिना जिंदगी के
सपना टूटा आंख खुली तो
एक महक की लहर हवा मे घुली थी
चिड़िया के बोल, गिलहरी के खेल
पल मे धुल गया मन का ये मैल
हवा इतनी खुशनुमा बह रही थी
किसी सुंदरी के बालों के जैसे
बच्चो की हसी , बुढो की खुशी
एक ही ताल मे जैसे थिरक रही थी
इतना हमने समझा कि ये जिंदगी है
इसमे चुनौती और बंदगी है
काली अंधियारी तो होती है रातें
इस मे ही सिमट के आती रोशनी है
- विभावरी विटकर
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